गांव की प्रेम कहानी
गर्मी की सुबह थी, जब सूरज की पहली किरण आई, और उसकी मुस्कान खेतों पर बिखर गई। पिंकी, उस छोटे से गांव की प्यारी लड़की, नर्म-नर्म कदमों से आँगन से खेतों की ओर बढ़ी। उसकी आँखों में मासूमियत, हाथ में एक चम्बल, और गले में हल्का सा गाँव की खुशबू भरी कहानी थी।
वहीं पास के खेतों में काम कर रहा करण था। उसकी उंगलियाँ मिट्टी को चूम रही थीं, और पसीने से भीगा चेहरा, खेत की कड़ी मेहनत का सबूत था। सुध-बुध में किसी समय उसकी निगाह पिंकी पर ठहर गई—उसकी हर अदा में कुछ नया चलता था जो शब्दों से परे था।
जल्दी की फुर्सत नहीं थी, लेकिन ज़रा-ज़रा कर वे मिलते—पिंकी छुपते-छुपाते चन्द फूल देती, करण मुस्कुरा देता। शुरू में केवल एक आदरभरी मुस्कान थी, फिर वो बातें बढ़ने लगीं—“कल बारिश आई होगी न?” पिंकी पूछती, करण बताता, “हाँ, मम्मी बता रही थीं।” कहानियाँ बनती, फूल बनते, दिल बनते।
समय निकलता गया—वो खेत में काम करते, पिंकी झुरमुट से अंगड़ाई вывод लेती, उसकी ननी जुबान की मीठी थपकी उसकी हँसी में घुलती। एक दिन करण ने कहा, “तेरा फूल दिल को ठंडक देता है।”
पिंकी शरमा कर मुस्कुराई। वह जान रही थी कि एक नया सफर शुरू हो रहा है—बिना किसी नाम के, पर महसूस से गहरा।
फिर एक रविवार आया, गाँव में मेला लगा। कतारों में बच्चे हँस रहे थे, महिलाएं जुग jug बजा रही थीं, और माहौल में गाँव का गीत बज रहा था। करण ने थोड़ा हिम्मत करके पिंकी से पूछा: “चलोगी मेरे साथ झूला झूलने?”
उसने सिर हिलाया और दोनों झूले पर बैठ गए, हवा चली, हँसी उड़ी, यादें जुड़ीं। उन दोनों की आँखों में एक नई चमक थी—आसानी-सी, और कुछ खास सी।
धीरे-धीरे, अचानक! पिता जी ने इनकी नज़रों को अपने दिल से जोड़ा। गाँव के बुज़ुर्ग बैठे और कहा, “यह रिश्ता ठीक लगे। खेती के काम में भी साथ चलेंगे।” पिंकी के माता-पिता की आँखों में वह भरोसा उतर गया।
करण के पिता बोले, “मिट्टी की खुशबू में अगर उसका घर चलता है, तो हम भी खुश हैं।”
तैयारी शुरू हुई—बहन आई, चूल्हा चला, हल्दी लगी, मेहँदी रची। उस दिन, पिंकी की आँखों में चमक थी, और करण के हाथों में थिरकन थी—वो पल न कोई वादा मांगता, न कोई ढांचा—बस गरम हाथों में थमा एक रिश्ता, जो गहरी मिट्टी में पैरो जड़ रहा था।
शादी के बाद सुबह-शाम खेतों की तलाश थी। दोनों मिलकर बीज बोते, फसल की ख़ुशी मनाते, बच्चों की हँसी में नए जीवन का आनंद पाते। गाँव की पंडारी में काम, खेत के किनारे बैठ कर बचपन की बातें सुनाना, दिल के जज़्बातों की मिठास… सब मिला।
कुछ साल बाद गाँव में पानी की कमी आयी, लोगों ने शहर जाने लगें। करण और पिंकी ने भी सोचा, लेकिन उन्होंने जाना कि उनकी दुनिया मिट्टी में ही बसती है—उनकी खुशबियाँ वहीं उगती हैं।
उनके बच्चे खेतों में खेलते, उनकी हँसी खेत की हवा में गूंजती—और दोनों बस देखते रहते।
हर मुश्किल आई—पानी की दिक्कत, फसल खराब, बीमारी… पर उन्होंने एक-दूसरे का हाथ पकड़ रखा था। पिंकी कहती, “कुछ भी हो, जब तुम साथ हो, सब आसान है।”
करण जवाब देता, “और जब तू मुस्कुराती है, पूरा गाँव रोशन लगता है।”
अंत में वे बूढ़े हाथों से हाथ थाम कर गाँव की पगडंडियों पर निकलते। उनके कदम थके हुए नहीं थे—उन्हें मिलकर गुजारी जिंदगी की मुस्कान ही उनका सहारा थी। शाम की हँसी, बच्चों की यादें, खेत की सूखी-गीली महक—उनके दिल में एक कहानी भर दे रही थी।
जैसे ही सूर्य अस्त हुआ, खेतों की मिट्टी ने एक आखिरी स्वेद-अभिवादन दिया। पिंकी ने कहा, “देखो, यह सूरज भी हम पर मुस्कुरा रहा है।”
करण ने कहा, “हमारी कहानी है न—‘गांव की प्रेम कहानी’।”
वे मूक मुस्कुराए और सूरज की लाली में वही प्यार अपनी सत्ता बनाते रहे।
कहानी का अंत:
मिट्टी में पली वो दो आत्माएँ, सादगी और संघर्ष के बीच–एक दूसरे की सहारा बनकर जिंदा रहीं, और उनकी कहानी यूँ ही गाँव-की-गली की हँसी में रची हुई, कभी खत्म नहीं होती।