20 Jul, 2025

तुम्हारी मुस्कान का आगाज़

सुबह की हल्की धूप, खिलखिलाती हवा, और पंखे की हल्की सरसराहट में एक नई उम्मीद जाग उठी थी। आदित्य चाय लेकर बरामदे में बैठ गया। उसकी निगाहें दूर तक फैली राजमार्ग से टकराई जहाँ एक लड़की साइकिल पर आई—उसकी मुस्कान में कुछ बचपना, कुछ निश्छलता और बहुत सारी गर्माहट थी।

उसे एक झलक देखना पर्याप्त था—मन भर गया, दिल उछल गया। उसकी आवाज़, धीमी-धीमी कदम—हर चीज़ इतनी प्राकृतिक, इतनी अनकही आगे की कहानी सी।

वो पहला मुलाकात नीचे मोड़ पर हुई, जब लड़की साइकिल से गिरी—और आदित्य ने बिना सोचे-समझे मदद की। उससे बातचीत बिना किसी प्रयास के शुरू हो गई—हँसी, हल्के-फ्लर्ट, फिर चाय की पेशकश… बस, वो पल बना एक आरंभ।

धीरे-धीरे वो हर शाम आती। एक किताब साथ लाती, नए व्यंजन के किस्से बताती, और कभी-कभी सिर्फ एक हाथ पकड़ कर मुस्कुरा जाती—समझो, बस वही एक पल उसके लिए पूरे दिन का बदला देने वाला होता।

उनकी बातचीत ने रूप लिया—दोनो की पसंदीदा किताबें, पुराने गाने, बचपन की यादें, घर की खुशियाँ और दुख… अनुभव का ये आदान-प्रदान इतना सौम्य था कि दोनो को पता तक नहीं चला कि वे रोज़ इंतज़ार करने लगे उस मुलाकात का।

एक दिन बारिश आ गई। सड़कों पर पानी, बाइक गिरना, मोटे-मोटे बूंदों के बीच हाथ पकड़ना… वो दिन बन गया यादों का एक हसीन चित्र। उसने कहा, “तुम्हारी हिम्मत और मुस्कान बहुत कुछ कहती है।”
उसने जवाब दिया, “तुम्हारे साथ बस, एक ख़्याल है—कि मैं सुरक्षित हूँ।”

कुछ हफ्ते बातों में एक नयी गहराई आई—कभी मीठी तकरारें, कभी चुटकी लेने वाली बातें। फिर एक शाम जब सूरज ढल रहा था, उसने कहा, “तुम्हारे बिना ये शाम अधूरी है।”
उसने मुस्कुरा कर कहा, “और तुम्हारे बिना ये मुस्कान…”

फिर एक दिन आदित्य अचानक नहीं आया मिलने। गिरता दिल, ढूँढती नजरें, बार-बार मैसेज पर अपनों की उम्मीद। पर अगले दिन उसने बताया—उनके घर में थोड़ी तकलीफ हुई। अगले मुलाक़ात पर जब वह मिली, आँसू के साथ उसने पूछा, “क्या मैं अब भी तुम्हारे लिए कि तुम्हारा इंतज़ार करना सही था?”
उसने चेहरे पर मुस्कान रखकर कहा, “इंतज़ार ही तो है जिसपर तू भरोसा कर सकती है।”

धीरे-धीरे उनका रिश्ता बातें, छोटी-छोटी ख़ुशियाँ, और मुलाक़ातों के बीच उम्र-भर का साथ बन गया। कॉलेज की लाइब्रेरी में पढ़ते-पढ़ते, स्नैक्स शेयर करते, छुट्टी वाले पिकनिक में लड़ते, हँसते, फिर गहराई से बातों में खो जाते…
एक दिन उसने उसके हाथ थामते हुए कहा, “मैं यहां सबसे सुरक्षित महसूस करता हूँ”।
वो मुस्कुराई—“और मैं तुम्हारे आसपास…”

समय गुज़रने लगा। परीक्षा की तैयारी, कॉलेज की जद्दोजहद, नौकरी की तलाश—हर बात में साथ थे। दोनों छोटे सपने लेकर चले—एक बड़ा ऑफिस, एक छोटी सी अपनापन भरी ज़िन्दगी।
जब उसने ऑफिस offer letter लाया, और उसने अपनी लेखनी की पहली मंज़िल देखी—दोनों की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था।

फिर दूरी आई—एक शहर अलग, फोन कॉल कम, ईमेल ज़्यादा। लेकिन हर रात एक-दूसरे को बस एक संदेश भेजना—“मैं ठीक हूँ, तुम सुनो?”—वो दोनों की डेली रूटीन हो गई। वक्त निकलता गया, वादों की सफ़ाई—“जब लौटूंगा, मुलाक़ात के दिन गिनूँगा।”

फिर एक रात देर से फोन आया—“मैंने ऑफिस छोड़ दिया, अभी तुम्हारे साथ लौटना है।”
उसकी आवाज़ में सहज ख़ुशी थी—उसे पता था यह पल वफ़ा का था।

वापसी की शाम आई। साइकिल गली में खड़ी थी, चाबी आधी खुली, और सामने वो—मुस्कुराती हुई। वो आगे आया, चुपके से पूछा, “क्या कभी तुमने सोचा कि ये सिलसिला बंद हो जाएगा?”
उसने सिर हिलाया—“ना, क्योंकि जो ख्याल दोनों में था—वो ज़िंदा रहा”।

धीरे-धीरे जीवन में स्थिरता आई—एक छोटी सी शादी, अपनों की सरहद तक इकट्ठा होना, चुटकी-ठिठोली, माँ की दाल-रोटी, और उसके साथ लंच बॉक्स बाँटना।
एक शाम बेझिझक उसने कहा, “कभी-कभी मैं सोचता हूँ—मुझे लाखों बातें करनी होंगी, लेकिन तुम्हारी आँखों से जो तुम्हारी ख़ुशी झलके… बस वही काफी है।”
वो मुस्कुरा कर बोली—“और तुम्हारी एक मुस्कान मेरे लिए पूरे दिन का सूरज है।”

बच्चा हुआ—दोनों ने अपने अनुभव को साझा किया। वह बच्चे की शरारतें सुनाने लगी, वे उसके पहले शब्द गिनते… और फिर छोटे-मोटे झगड़ों की दुनिया ने दस्तक दी।
पर परदे के अंदर प्यार उतना ही गहरा था—“मैं हूँ न तुम्हारे साथ,” वो कहता।
वो जवाब देती, “और मैं तुम्हारी मुस्कानों की गूँज हूँ।”

समय के साथ जब ऑफिस में चुनौती आई, या किताबों की बिक्री थमी—वे फिर वही बेसिक मुलाक़ात, वही मुस्कुराहट और वही भरोसा ने एक-दूसरे का हाथ थाम लिया।
“एक दिन फिर से वही चाय, वही बातें, वही बातें जो बिना बोले समझ जाएँ—ये बाते हमें याद दिलाती हैं कि तुम मेरी ज़िन्दगी हो।”
और वो जवाब देती, “तुम मेरी मुस्कान का आगाज़ हो।”