20 Jul, 2025

चौपाल की ठंडी मिट्टी से उपजी एक मोहब्बत

गर्मी की शाम थी। गाँव “सोनपुर” की चौपाल पर मिट्टी की खुशबू हवा में लहराती थी। चारों ओर उड़ते धूल के कण जैसे कहानी कहने को बेताब थे। उस चौपाल की पुरानी नीम के नीचे हर शाम गाँव की महिलाएं-पुरुष बातें बांटते, उत्तर-काल की तैयारी करते और बच्चों को हँसते-खेलते देख समय बिताते। यहाँ एक अनकही मोहब्बत भी पनप रही थी—मोहब्बत जो आसमानी इंद्रधनुष से कम नहीं थी, लेकिन गाँव की सीमाओं से जकड़ी थी।

लालाराम नाम का एक लड़का था, जिसकी आँखों में गाँव की मिट्टी की माटी का प्यार था। वो सादा-सीधा, ईमानदार, और संवेदनशील था। उसकी मुस्कान में चार चाँद लग जाते जब वो गुड़िया को देखता—गाँव की नई आई लड़की जिसे शहर से भेजा गया था। गुड़िया का चेहरा चमकता सूरज की तरह था, लेकिन आँखों में नीम-चौपाल की छाँव सी कोमलता थी। जब भी वो मुस्कुराती, चौपाल की चौखट पर बैठे लोग चुप हो जाते और नयी सुबह की उम्मीद लिए उसे देखते।

एक शाम लालाराम ने गुड़िया को खेत की पगडंडी पर जाते देखा। चुपचाप उसने पीछे-पीछे चलना शुरू किया, लेकिन जब वो मुड़कर मिली तो मुस्कराकर चली गई। उस मुस्कराहट ने लालाराम की तिजोरी में उत्साह भर दिया। अगले दिनों, रेडियो की धीमी आवाज़ में छोड़ी हुई एक पगडंडी, दो कच्ची दीवारों वाली चौपाल और शौचालय बनवाने की बातें—हर जगह उनका मिलन एक अनकही भाषा बोलता था।

गाँव वालों ने धीरे-धीरे महसूस करना शुरू किया कि यह दोस्ती सिर्फ दोस्ती नहीं है। इस मोहब्बत में एक नापाक बेहद ताकत थी—समाज की पैठी-टनके जैसी परतों को छाड़कर दिल की बातें कह रही थी। वे चौपाल पर पीछे की नीम के पेड़ के नीचे बैठते, और ये कहानियां दीवारों से टकराकर खेत की ओर चली जातीं। खेतों की पैदावार और फसलों की बुआई के बीच यह प्रेम अपने आप को खेती की तरह सींचता गया—फिर चाहे यह असंदिग्ध था।

लेकिन गाँव के रीति-रिवाज़ ठोस पत्थर थे। गुड़िया का घर जमींदारी वाला था जबकि लालाराम किसान परिवार से था। गाँव के मुखिया, पंचायत और बड़े-बुज़ुर्गों ने कह दिया: “ऐसे रिश्ते गांव की इज्जत मिट्टी में मिलाते हैं।” गुड़िया के पिता ने शहर से बुला लिया अपनी बेटी को, ज़माने का फ़ैसला जैसे घोषित हो गया। फौरी हवा की तरह गुड़िया को उठाकर ले जाया गया गाँव की गलियों से, और साथ में उसकी हँसी, उसकी भविष्य की उम्मीदें, लालाराम का दिल, सब सिरक गए।

उस शाम लालाराम चौपाल बैठा रहा, नीम की मीठी ठंडक थमी हुई थी। उसकी आँखें उठी हुई उम्मीद की तरह, जमीन पर गिरकर धूल में मिल गईं। उस दिन के बाद से गाँव का संगीत थम गया, लेकिन भूमि की आत्मा अभी भी उस प्रेम की रिक्तता को महसूस कर रही थी।

वक्त गुज़रता गया, लेकिन दिल में बसा वो अंधेरा मिट नहीं पाया। खेतों में हर बारिश के साथ उसकी आँखों में पानी समाता, हर फसल की खुशहाली में एक अजीब दबी सी परेशानी होती। गाँव-वासी कहते थे: “लालाराम अब खेती में भी ध्यान नहीं लगाता।” सड़ती फसलें, अधूरी नींद, नामुमकिन-सा एक घर—ऐसे समय ने उसकी जवानी को छीना। लेकिन उसका दिल धड़कता रहा उस गुज़र चुकी मुस्कान की याद में, उस गुड़िया की बातें जिसमें असलियत, इंसानियत और शिद्दत थी।

जो दिन आया जब गाँव में सेहत शिविर लगा, अस्पताल की टीम ने गांव पहुंचकर स्वास्थ्य जांच शुरु की। उसमें एक चेहरा था—पहले से ही बरसों पुरानी याद से वायरल हुई मुस्कान, गहरा हुआ माथा, लेकिन वही गेयता अभी भी लहक रही थी उसकी आँखों में। गुड़िया थी, लौटकर आई अपने शहर से, लेकिन अब किसी और के साथ, विवाहित, साथ में बेटे–बेटी की जिम्मेदारियों को लिए हुए।

जब उन्होंने देखा एक दुसरे को, दिलों की खामोशी कुछ कहने लगी। आसपास का माहौल भी भावनाओं से सराबोर हो गया—भीड़ रुक गई, हवा रोककर गुज़र गई। ख़ामोशी का आलम था, लेकिन दिलों की निकलती धड़कन थी अमिट।

गुड़िया आई नीम के पेड़ के नज़दीक, धरती से जा मिली चौपाल पर, धीमे से बोली जिसने अपनी आवाज़ पीछे ही छोड़ दी थी: “लालाराम।” वो बस इतना सुन पाया। उसके बाद आंसू बहने लगे, अवाक् हर एहसास भीतर घुस आया।

गुड़िया ने ज़िबर चलाते हुए एक लाल रंग की चिट्ठी निकाली और नीम की जड़ों में रख दी। वो चिट्ठी पुरानी यादों, नए अहसासों और एक मांगलिक कसम के बीच की एक पुल थी—दोनों के लिए। उसने कहा, “इस कहानी का अंत मैंने अपने रास से लिखा है, कोई और न हो सका।” उसकी आंखों ने कह दिया कि समाज की बेड़ियों ने उसे बांध रखा है, लेकिन दिल की मोहब्बत असीमित थी।

लालाराम ने बिना बोले चिट्ठी को खोला। उसमें गुड़िया ने लिखा था:

‘मेरा जीवन नए अध्याय में बंधा है, लेकिन मेरा दिल तुम्हारे साथ ही धड़कता रहेगा। मैं तुम्हारी खुशियों के लिए दुआ करूंगी, तुम्हारी हर खुशी में अपनी खुशी पाऊँगी। शायद इस रस्ते का मिलन न हो सके, लेकिन हमारी प्रेम कहानी अमिट है। चौपाल की वो शाम, नीम की वो छाँव और मिट्टी की वो खुशबू—सब कहीं खोई नहीं, सब कुछ तुमसे जुड़ गया है।’

लालाराम की आँखों से बहते आंसू मिट्टी में मिल गए और मिट्टी की गंध गहरी हो गई। गाँव में गूँज उठी एक अनकही दुआ: “जो प्यार शुरू हुआ था गाँव की चौपाल पर, उसका नाम सच्चाई रहेगा।”

गुड़िया अब लौटने लगी, बेटे-बेटी को लेकर, अपने नए घर की ओर—लेकिन पीछे हवा में छोड़ गई एक सौगंध, एक याद, जो हर छमाही में रहती थी—गाँव की उस चौपाल की माटी में, नीम के पेड़ की छाया में, और दो दिलों में जो कभी मिले थे।

और लालाराम? वो उसी चौपाल पर बैठा रहता, लेकिन अब उसकी आँखों में एक तरह की शांति थी, एक संतोष की ठंडी हवा थी—कि प्यार कभी खत्म नहीं होता। वह सिर्फ रूप बदलकर बाकी रहता है।

इस तरह खत्म हुई यह कहानी—जिसमें गाँव की सादगी थी, प्रेम की निष्ठा थी, संघर्ष का दर्द था और अंत में एक गहरी शांति थी। यह कहानी अधूरी सी लग सकती है, लेकिन उसकी पुरक क्षमता उस शांत रात की तरह फैल चुकी है—अनगिनत दिलों में घर कर गई है, और हमेशा रहेगी।