Wed. Sep 10th, 2025
School Lifes
वो आख़िरी घंटी सिर्फ स्कूल की नहीं थी, बल्कि हमारी मासूमियत की विदाई थी।

स्कूल की आख़िरी घंटी—ओह भाई, वो दिन! सच कहूँ तो, ज़िंदगी के बड़े-बड़े ट्विस्ट कभी-कभी बिना कोई तमाशा किए आ जाते हैं। ना ढोल-नगाड़े, ना कोई फिल्मी सीन—बस टन-टन, घंटी बजी और… सब पलट गया। मेरे लिए भी वही दिन था, स्कूल का फिनाले। सुबह-सुबह अलसाई धूप, आख़िरी बार यूनिफॉर्म पहनना, आईने में खुद को घूरना—और दिल में अजीब-सा खटका, यार, आज के बाद तो सब उल्टा-पुल्टा होने वाला है।

स्कूल, बाहर से तो रोज़ जैसा ही, पर अंदर कुछ और ही माहौल था। बिल्डिंग में एक उदासी तैर रही थी जैसे कोई पुराना दोस्त चुपचाप विदा ले रहा हो। क्लासरूम—जहाँ कभी बकचोदी की, कभी मारपीट, कभी दोस्ती पक्की—आज वो भी जैसे हमें ही घूर रहा था, “चल बे, अब जा भी।”

चेहरे—वो ही रोज़ वाले, लेकिन आज सब कुछ अलग सा फील दे रहे थे। जैसे हर किसी के पीछे एक अधूरी कहानी छुपी हो। दोस्त मिले, गले लगे—पर वो हग सिर्फ फॉर्मेलिटी नहीं थी। उसमें सालों की मस्ती, बेवकूफी, और लाखों हँसी छुपी थी। और हाँ, जो सबसे ज्यादा बक-बक करता था, वो भी आज बिल्कुल खामोश।

हॉल में फेयरवेल की तैयारियाँ—कुर्सियाँ लाइन से, साउंड सिस्टम की माइल्ड बीट, टीचर्स मंच पे बैठे—सब कुछ ऑन पॉइंट, लेकिन मन बार-बार फ्लैशबैक मारता रहा। वहीं पहली क्लास, पहली बेंच, पहली दोस्ती, पहली बार टीचर की डाँट—सब।

टीचर्स के स्पीच—क्या बोले यार, शब्द कम, इमोशन ज्यादा। कभी समझा रहे, कभी आशीर्वाद दे रहे, और कभी बस आँखों से सब कह रहे थे। एक मैम का डायलॉग आज भी याद है—मुस्कुरा के बोलीं, “तुम आगे बढ़ जाओगे, हम यहीं रहेंगे… फिर कभी लौटोगे तो यहीं मिलेंगे, उसी ब्लैकबोर्ड के पास।” अंदर से झनझना गया था दिल।

लंच टाइम—कसम से, उस दिन का खाना भी कुछ अलग ही टेस्ट दे रहा था। सब साथ बैठे, डब्बे खुल रहे थे, मम्मी की महक, दोस्त के हाथ में घूमता पराठा—सब कुछ जैसे आख़िरी बार हो रहा हो। कोई ज़्यादा बोल नहीं रहा था, लेकिन सब समझ रहे थे।

फोटो सेशन—क्या ही बताऊँ, ग्रुप फोटो, सेल्फी, जोड़ी वाली, टीचर्स के साथ, स्कूल के बाहर—इतनी क्लिकिंग, जितनी पूरी लाइफ में नहीं की थी। पर हर फोटो के पीछे वही डर—शायद ये आख़िरी साथ वाली फोटो है। आज भी देखो तो दिल भर आता है, आँखें नम हो जाती हैं।

अब असली ड्रामा—गुडबाय कहना। ये एक शब्द बोलने में ही गला भर आता है, आँखें नम, दिल—ओ भाई, वो तो बिलकुल मानने को ही रेडी नहीं था। “चल मिलते हैं फिर…”—कह तो देते हैं, पर अंदर से सबको पता है, लाइफ अब अपनी-अपनी पटरी पे दौड़ जाएगी।

और फिर वो घंटी—टिंग!—सिर्फ घंटी नहीं थी, एक पूरा चैप्टर क्लोज हो गया। किताबें, नोटबुक्स, स्कूल बैग, यूनिफॉर्म—सब अब बस यादें बन गईं। हम भी अब वो बच्चे नहीं रहे, जो बेल बजते ही स्कूल की तरफ भागते थे। अब असली लाइफ का एडमिशन हो गया था, बॉस!

स्कूल के गेट से बाहर निकलते-निकलते पीछे मुड़ा—कोई हाथ हिला रहा था, कोई टीचर स्माइल दे रही थी, कुछ दोस्त आख़िरी बार खड़े थे। सबके दिमाग में एक ही सवाल—“क्या फिर मिलेंगे?” शायद हाँ, शायद ना…पर जो साथ जिया, वो हमेशा के लिए दिल में छप गया।

फिर कॉलेज शुरू हुआ, नए दोस्त, नया माहौल—पर स्कूल वाली फिलिंग कहीं मिसिंग थी। स्कूल की दीवारें, टीचर्स की झिड़कियाँ, दोस्तों की गप्प—सब अब बस यादों की हार्ड ड्राइव में सेव है। कभी पुराना ग्रुप फोटो देखो, या किसी दोस्त का कॉल आए—दिल सीधा टाइम मशीन बन जाता है, और वापस लौटा देता है उसी क्लासरूम में।

आज भी कहीं किसी स्कूल के बाहर से गुजरता हूँ—तो दिल में एक हूक-सी उठती है। मन करता है जाकर देखूं—क्या वो क्लास, वो बेंच, वो खिड़की अब भी वहीं है? क्या कोई और बच्चा वहाँ बैठा है, जो अपनी दोस्ती की नई स्टोरी लिख रहा है?

ज़िंदगी भागती रहती है, लेकिन स्कूल वाला टाइम—वो कभी दूर नहीं जाता। हँसी, आँसू, फेयरवेल की कसक—सब दिल की किताब में छप गए हैं। और जब कभी लाइफ से बोर हो जाओ, थक जाओ, वही किताब खोल लो—शायद फिर से मुस्कुरा दोगे।

4 thoughts on “स्कूल की आख़िरी घंटी – जब सब कुछ बदल गया था”

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