खामोशी की मोहब्बत – एक गांव की अधूरी दास्ता
राजस्थान की दोपहर, यार, सीधी आग बरस रही थी। सूरज का क्या कहना, मिट्टी से टकरा के ऐसी चमक उड़ा रहा था कि आंखें चौंधिया जाएं। ये किस्सा है “बदनपुर” का—छोटा सा गांव, जहां हर आवाज़ में कोई कहानी फंसी रहती थी और हर घर के पीछे एक राज छुपा था।
यहीं, उसी धूप में तपते एक पुराने खपरैल वाले मकान में रहता था राजवीर। उम्र कोई 19-20 के आसपास, गेहूंए रंग का, लंबा-चौड़ा और आंखों में कुछ अलग ही टशन। कोई राजकुमार नहीं था, मगर उसके ठाठ-बाठ देखो तो लगेगा किसी रियासत से आया है। दिन भर खेतों में खटना, बैलों के पीछे हल चलाना, बारिश में कीचड़ में सनकर भी मुस्कुराते हुए घर लौट आना—यही थी उसकी रोज़ की जिंदगी।
सब कुछ बढ़िया चल रहा था, जब तक कि स्कूल में नवमी कक्षा में नई लड़की नहीं आ गई—गुंजन। ये लड़की शहर से आई थी, और उसके पिता सरकारी नौकरी से रिटायर होकर गांव में बस गए थे।
गुंजन—क्या बताऊं, एकदम पढ़ी-लिखी, तहज़ीब वाली, और अंदर से गहरी। उसके बाल हवा में उड़ते तो खुद हवा भी लजा जाए। पहली बार जब राजवीर ने उसे देखा, तो कोई धमाकेदार फिल्मी सीन नहीं था, बस कुछ अलग सा महसूस हुआ—शांत, खामोश, लेकिन दिल के भीतर तक उतरता हुआ।
धीरे-धीरे दोनों के बीच आंख-मिचौली शुरू हो गई। नजरें मिलतीं, फिर झुक जातीं। बस, नाम दिल में उतरता जा रहा था। गुंजन जब स्कूल जाती, तो राजवीर अक्सर उसी रास्ते से खेत से लौटता। दोनों कुछ नहीं बोलते, पर उस चुप्पी में पूरी किताब लिखी जा सकती थी।
गांव वालों की बातें तो अलग ही लेवल पर थीं—“कुंवर साहब तो आजकल किसी के पीछे पड़े हैं।” और गुंजन की मां—“पढ़ाई पर ध्यान दे, गांव के लड़कों से दूर रह।”
पर प्यार… वो कहां किसी की सुनता है? न उम्र देखता है, न जात-पात, बस हो जाता है।
फिर आया गांव का मेला। पूरा गांव चमचमाता हुआ, कोई नीला सूट, कोई झुमके, और राजवीर सिर पर लाल पगड़ी बांधकर हीरो बन गया। मेला के झूले के पास दोनों की नजर टकराई, और पहली बार दोनों खुलकर मुस्कुराए। फुल-on मूवी वाला सीन!
शाम को तालाब के किनारे दोनों चुपचाप मिल लिए—न बुलावा, न कोई प्लान। बस बैठे रहे, जैसे खामोशी भी बोल रही थी।
गुंजन ने धीरे से पूछा—“आप रोज देखते हो, कुछ बोलते क्यों नहीं?”
राजवीर हंसा—“क्योंकि तुम्हारी आंखों में सब लिखा हुआ है।”
इसके बाद मुलाकातें होती रहीं—कभी मंदिर, कभी तालाब, कभी स्कूल के रास्ते। किसी ने कभी लफ्ज़ों में प्यार नहीं कहा, लेकिन हवा में मोहब्बत तैर रही थी।
लेकिन, गांव है भाई, अफवाहें तो उड़ेंगी ही। एक दिन किसी ने उड़ा दिया—“राजवीर और गुंजन का चक्कर चल रहा है।” फिर क्या, गुंजन के घर में तूफान आ गया। मां ने स्कूल छुड़वा दिया, बाप ने फरमान सुना दिया—“अब यहां नहीं रहना।”
राजवीर बेचैन, परेशान—चाह कर भी कुछ कर नहीं सकता था। एक बार हिम्मत करके गुंजन के घर के सामने खड़ा रहा, शायद एक झलक मिल जाए। पर दरवाज़ा बंद ही रहा।
गुंजन के जाने के दिन, गांव की हवा भी थकी-थकी सी थी। वो ट्रैक्टर में बैठी, और राजवीर छत से देख रहा। दोनों की आंखों में आंसू, मगर न कोई रोया, न कोई चिल्लाया। बस खामोशी में मोहब्बत का आखिरी सीन बन गया।
वक्त की रफ्तार देखो—राजवीर ने अब किताबें पकड़ लीं, और गुंजन ने शहर में पढ़ाई पूरी कर ली। दोनों ने कभी एक-दूसरे से बात नहीं की, पर दोनों जानते थे—मोहब्बत खत्म नहीं हुई, बस गांव की मिट्टी में मिल गई।
आज भी तालाब के किनारे बैठो तो लगता है जैसे हवाओं में कोई अधूरी कहानी अब भी तैर रही है, जैसे किसी को पूरा होने का इंतजार हो।
अब राजवीर गांव का मास्टर बन गया है। और गुंजन? शहर में नामी लेखिका। उसकी कहानियों में अक्सर कोई “राज” नाम का किरदार मिलता है।
लोग पूछ बैठते हैं—“ये राज कौन है?”
गुंजन बस मुस्कुरा देती है—“एक खामोशी थी, अब शब्दों में बदल गई।”
Very nice story
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