खामोशी की मोहब्बत – एक गांव की अधूरी दास्ता
राजस्थान की तपती दोपहरी थी, जब सूरज की किरणें गांव की मिट्टी से टकराकर सुनहरी चमक बिखेर रही थीं। गांव का नाम था “बदनपुर” — एक छोटा सा गांव, जहां हर आहट किसी किस्से की तरह होती थी और हर घर एक कहानी कहता था।
इसी गांव के एक पुराने खपरैल वाले मकान में रहता था राजवीर — लगभग 19 साल का, गेहूंए रंग का, ऊँचा कद, और आंखों में एक अलग ही चमक। वो कोई राजा का बेटा नहीं था, लेकिन उसके स्वभाव में शाहीपन था। खेतों में काम करना, बैलों के साथ हल चलाना, और बारिश के मौसम में कीचड़ से सने पैर लिए मुस्कुराते हुए घर लौटना, उसकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी थी।
राजवीर की जिंदगी में सब कुछ सामान्य चल रहा था, जब तक कि गांव के स्कूल में नवमी कक्षा में पढ़ने के लिए शहर से गुंजन नाम की एक लड़की नहीं आई। गुंजन का परिवार कुछ महीने पहले ही गांव लौटा था। उसके पिता एक सरकारी नौकरी से रिटायर होकर गांव बसने आए थे।
गुंजन बिल्कुल शहर की तरह पढ़ी-लिखी, शालीन, और गहराई वाली थी। उसके बाल हवा के झोंकों में जैसे गीत गाते, और उसकी आंखों में जैसे समंदर बसा हो। पहली बार जब राजवीर ने गुंजन को देखा, तो कुछ तो हुआ था — न कोई धड़कन तेज़ हुई, न कोई फिल्मी पल हुआ, बस एक ख़ामोश जुड़ाव सा महसूस हुआ।
धीरे-धीरे दोनों की आंखें अक्सर टकराने लगीं। नज़रें झुक जातीं, पर दिल की गहराइयों में एक नाम दर्ज होता जा रहा था। गांव की गलियों में जब भी गुंजन अपने स्कूल जाती, राजवीर अपने खेत से लौटते समय रास्ता वहीं से चुनता। दोनों कुछ नहीं कहते, बस चुपचाप एक-दूसरे को महसूस करते।
उनके बीच कभी कोई शब्दों का आदान-प्रदान नहीं हुआ था, पर खामोशी में बहुत कुछ कह दिया जाता था। गांव की गलियों में अक्सर लोग बातें बनाने लगते — “कुंवर साहब की नजर तो आजकल किसी पर टिकी रहती है”, और गुंजन की मां कहतीं — “तू पढ़ाई पर ध्यान दे, गांव के लड़कों की बातों में न आना।”
लेकिन मोहब्बत तो बस हो जाती है — न उम्र देखती है, न समाज, न मज़हब।
एक दिन गांव में मेले का आयोजन हुआ। पूरा गांव सजधज कर आया था। गुंजन ने नीला सूट पहना था, और कानों में झुमके। राजवीर ने सफेद कुर्ता और सिर पर लाल पगड़ी बांधी थी। दोनों की नजरें मेला के झूले वाले मैदान में मिलीं। उस दिन पहली बार दोनों ने एक-दूसरे को थोड़ी देर देखा, थोड़ा मुस्कुराए भी।
उसी शाम तालाब किनारे दोनों अकेले मिले, बिना कहे, बिना बुलाए। एक चुप्पी थी जो शोर मचा रही थी।
गुंजन ने धीमे से कहा, “आप मुझे रोज़ देखते हैं, पर कुछ कहते क्यों नहीं?”
राजवीर मुस्कराया, “क्योंकि तुम्हारी आंखों में सब कुछ पढ़ लेता हूं।”
उसके बाद दोनों की मुलाकातें तालाब, मंदिर और स्कूल के रास्तों में होती रहीं। किसी ने किसी से प्यार का इज़हार नहीं किया, लेकिन मोहब्बत दोनों की सांसों में बस गई थी।
वक्त गुज़रता रहा, और एक दिन गांव में किसी ने अफवाह फैला दी — “राजवीर और गुंजन का चक्कर चल रहा है।” बस फिर क्या था, गुंजन के घर में बवाल मच गया। उसकी मां ने स्कूल छुड़वा दिया, और पिता ने सख्ती से हुक्म दिया — “अब इस गांव में नहीं रहना है।”
राजवीर परेशान हो गया। वो जानता था कि गुंजन को खोना नहीं चाहता, पर कुछ कर भी नहीं सकता था। एक दिन उसने हिम्मत जुटाकर गुंजन के घर के सामने खड़ा होकर एक आखिरी बार उसकी झलक पाने की कोशिश की। पर दरवाज़ा बंद रहा।
गुंजन की विदाई के दिन गांव की हवाएं भी सुस्त थीं। वो ट्रैक्टर में बैठी हुई थी, और राजवीर अपनी छत से उसे देख रहा था। दोनों की आंखों में आंसू थे, लेकिन कोई चिल्लाया नहीं, कोई दौड़ा नहीं। बस खामोशी से एक अधूरी मोहब्बत का अंतिम दृश्य रचा जा रहा था।
समय बीतता गया। राजवीर ने अब किताबें पकड़ ली थीं, और गुंजन ने शहर जाकर पढ़ाई पूरी की। उन्होंने कभी एक-दूसरे से संपर्क नहीं किया, लेकिन दोनों जानते थे कि उनकी मोहब्बत कहीं गुम नहीं हुई थी — वो बस उस गांव की मिट्टी में समा गई थी।
आज भी जब कोई गांव के तालाब किनारे बैठता है, तो हवाओं में एक खामोशी तैरती है। ऐसा लगता है जैसे कोई अधूरी मोहब्बत अपने पूरे होने का इंतज़ार कर रही हो।
राजवीर अब गांव का अध्यापक बन चुका है। और गुंजन? एक सफल लेखिका, जिसकी किताबों में अक्सर एक किरदार आता है — “राज”।
कभी-कभी लोग पूछते हैं — “ये राज कौन है?”
गुंजन बस मुस्कुराकर जवाब देती है — “एक खामोशी थी, जो अब शब्दों में बदल गई है।”