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पीपल के पेड़ के नीचे शुरू हुआ प्यार

सावन की पहली बारिश ने जैसे ही गाँव की मिट्टी को छुआ, बस गज़ब की खुशबू उठी। वही मिट्टी की सौंधी खुशबू, जो हर बार कुछ पुरानी यादें जगा देती है। और ये खुशबू ही थी, जिसने उसे उस पुराने पीपल के पेड़ तक खींच लिया था। गाँव के बीचोंबीच जड़ों से चिपका हुआ वो पीपल—उसकी छांव में न जाने कितनी कहानियाँ पनपी और मिट गईं। उन्हीं में एक और कहानी जुड़ गई — रघु और गौरी वाली।

रघु, यार, एकदम देसी-सीधा लड़का। बचपन से बापू के साथ खेत में मिट्टी खोदता आया। उसकी दुनिया थी — घर, खेत, और कभी-कभी टीले पर स्कूल। मन उसका समंदर, लेकिन बोलता कम ही था। फिर एक दिन उस पीपल के नीचे गौरी को देखा—पहली बार किसी लड़की को इतनी देर तक घूरा, खुद को भी ताज्जुब हो गया होगा।

गौरी, गांव के मास्टर साहब की बेटी, शहर की पढ़ी-लिखी मगर दिल से गांव की। छुट्टियों में दादा-दादी से मिलने आती, और उसकी हंसी, उसकी बातों में जो शरारत थी, रघु को सीधा किसी और ही दुनिया में ले जाती।

अब रघु का रूटीन हो गया—रोज़ सुबह जल्दी उठना, पीपल के पेड़ के पास जाना। बस, इतना सा बहाना कि गौरी फिर दिख जाए। कभी आती, कभी नहीं। लेकिन रघु की उम्मीद हरदम नई जैसी — जैसे खेतों पर ओस की ताज़ी बूँदें। एक दिन गौरी ने खुद ‘नमस्ते’ बोल दी। बस, रघु का दिल तो फुल्ल धड़कता रहा घंटों तक।

बातें वहीं से शुरू हुईं—मौसम, गांव के गप्पे, स्कूल की मस्ती। धीरे-धीरे ये बातें आदत हो गईं। गौरी कभी चॉकलेट लाती, रघु कभी ठंडी लस्सी ले आता। दोनों के बीच वो चुप्पी ज़्यादा बोलने लगी थी, शब्दों से कहीं आगे।

एक शाम, बादल भरे, हवा में वही मिट्टी की खुशबू, गौरी अचानक पूछ बैठी—“हर बार पहले क्यों आ जाते हो?”
रघु ने हँसते हुए बोला—“मुझे देर से डर लगता है। तुम्हें खोने से डर लगता है।”

बस, उस दिन दोनों की आँखों ने सब कुछ कह दिया। कोई इज़हार नहीं, कोई वादा नहीं—बस एक चुप्पी थी, जो सब बयां कर गई।

फिर क्या, गांव में बातें उड़ने लगीं—“मास्टरजी की बेटी, किसान का छोरा?” गांव है ना, सवाल करता है, जवाब कभी नहीं ढूंढता। मास्टरजी को ये रिश्ता जरा भी हज़म नहीं हुआ। गौरी को बिना बताए शहर भेज दिया, एकदम चुपचाप।

रघु को पता चला, तो वही पेड़ उसका ठिकाना बन गया। घंटों पीपल के नीचे बैठा रहता, जैसे वक्त उल्टा चल पड़ेगा। दो साल निकल गए। गांव भी बदल गया, रघु नहीं। अब भी शाम को वहीं मिलता था—पीपल की छांव में, बस यादों के साथ, बिना किसी उम्मीद के।

फिर वही सावन आया। वही खुशबू, वही फुहारें। रघु पीपल के पास पहुँचा, तो सामने गौरी खड़ी थी—हाथ में लस्सी का गिलास, आँखों में थोड़े आँसू, लेकिन मुस्कान वही पुरानी। कुछ बोले बिना उसने लस्सी रघु की तरफ बढ़ा दी। रघु की आँखें भी नम हो गईं।

गौरी बोली, “मैं लौट आई हूँ, हमेशा के लिए।”

अब न कोई समाज, न फासले। बस वो दोनों और उनका पीपल का पेड़, जहां उनका अधूरा प्यार फिर से पूरा हो गया।

शादी धूमधाम वाली नहीं हुई, न बैंड-बाजा, न शोर—मगर गांव के हर कोने ने चैन की सांस ली, जैसे कोई सपना सच हो गया हो।

अब हर शाम दोनों वहीं बैठते हैं, कभी लस्सी पीते, कभी चुपचाप पुराने दिनों में खो जाते। अब वहां एक पट्टी लगी है—“जहां से शुरू हुआ एक सच्चा प्यार।”