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तुम्हारी मुस्कान का आगाज

तुम्हारी मुस्कान का आगाज़

सुबह की धूप—वो भी खिड़की से छनती हुई, जैसे किसी ने हल्के-हल्के रंग बिखेरे हों। पंखा धीरे-धीरे चलता रहा, चाय हाथ में, आदित्य बरामदे में पसर गया। आँखें कहीं दूर सड़क पर जा टिकीं—और तभी वो आई, साइकिल पे। उसके चेहरे पर वो मासूम मुस्कान थी, जो एक बार दिख जाए तो दिल सीधा जिगर तक जा पहुँचे। कसम से, कितना सुकून था उस पल में।

यार, एक झलक में ही दिल बल्ले-बल्ले हो गया। उसकी चाल, उसकी आवाज़, सब कुछ जैसे जिंदगी की अगली कहानी की शुरुआत हो।

पहली बार जब असली टकराव हुआ—नीचे वाले मोड़ पे, उस लड़की की साइकिल फिसल गई। आदित्य बिना सोचे-समझे भागा और हाथ बढ़ा दिया। बात तो ऐसे शुरू हुई जैसे पुरानी जान-पहचान हो—हँसी, मजाक, चाय पे इन्वाइट… और फिर, जो पल बना, वो जाने-अनजाने दिल में बस गया।

धीरे-धीरे, वो रोज़ शाम आती। कभी किताब लेकर, कभी कोई नया पकवान का किस्सा सुनाती, तो कभी बस यूँ हाथ पकड़ के मुस्कुरा जाती। लगता था, उस एक मुस्कान से पूरा दिन बदल गया हो।

बातें ऐसी बह निकलीं कि किताबों से लेकर पुराने गानों तक, बचपन के किस्सों से घर के झगड़े-खुशियों तक सब खुल गया। खुद को पता ही नहीं चला कब मुलाकात का इंतजार दिल की आदत बन गई।

फिर एक दिन बारिश आई—पानी सड़कों पर, बाइक फिसली, मोटी-मोटी बूँदें, और दोनों हाथ पकड़े खड़े। उसने कहा, “तेरे हौसले और मुस्कान में जादू है।”
उसने जवाब दिया, “तेरे साथ हूँ तो लगता है, सब ठीक है।”

कुछ हफ्तों बाद बॉन्डिंग लेवल अप हो गया—कभी मीठी नोक-झोंक, कभी छेड़खानी। एक शाम सूरज ढलते हुए उसने कह ही दिया, “तेरे बिना ये शाम अधूरी है।”
वो मुस्कुरा के बोली, “और तेरे बिना ये मुस्कान…”

फिर अचानक आदित्य गायब! दिल घबराया, आँखें राह ताकती रहीं, मैसेज पे बार-बार उम्मीद—क्या सीन है भाई? अगले दिन पता चला, घर में कुछ दिक्कत थी। जब मुलाकात हुई, उसने आँसू में पूछ लिया, “क्या मेरा इंतजार वाकई सही था?”
आदित्य ने मुस्कुराकर कहा, “इंतजार ही तो असली भरोसा है।”

धीरे-धीरे, छोटी-छोटी खुशियाँ, ढेर सारी बातें, मुलाकातें—इन सबसे रिश्ता गहराता गया। लाइब्रेरी में पढ़ाई, स्नैक्स शेयर, छुट्टियों में पिकनिक पे झगड़े, हँसी-मजाक—हर चीज़ में एक अलग अपनापन।
एक दिन उसके हाथ थामकर बोला, “मैं यहाँ सबसे ज्यादा सुरक्षित महसूस करता हूँ।”
वो हँसी, “और मैं तेरे आस-पास…”

समय उड़ गया। एग्ज़ाम्स, कॉलेज की भागदौड़, नौकरी की टेंशन—साथ-साथ सब पार किया। छोटे-छोटे सपनों का झोला—एक बड़ा ऑफिस, एक प्यारी-सी लाइफ।

जब उसे ऑफिस का ऑफर लेटर मिला और उसने अपनी पहली किताब छपते देखी—ओ भाई, दोनों की खुशी का तो ठिकाना ही नहीं रहा!

फिर आई वो दूरी—अलग-अलग शहर, कम कॉल्स, ज़्यादा ईमेल्स। लेकिन हर रात एक मैसेज—“मैं ठीक हूँ, तुम सुनाओ?”—इनकी खुद की लाइफलाइन बन गई थी।
और फिर, एक रात फोन आया—“ऑफिस छोड़ दिया, अब तेरे पास आना है।”
उसकी आवाज़ में वो फीलिंग थी कि अब सब सही हो जाएगा।

फिर वापसी का दिन—साइकिल वही, गली वही, वो सामने मुस्कुराती हुई। धीरे से पूछा, “कभी सोचा था, ये सिलसिला टूट जाएगा?”
उसने सिर हिलाया—“नहीं, क्योंकि जो फीलिंग थी, वो चलती रही।”

धीरे-धीरे, लाइफ ने रफ्तार पकड़ी—छोटी-सी शादी, अपने-अपने करीबी, मम्मी की दाल-रोटी, लंच बॉक्स शेयर।
एक शाम बेबाक कह दिया, “कभी-कभी लगता है, लाख बातें कहनी हैं, पर तेरी आँखों की खुशी देख लूं, वही काफी है।”
वो मुस्कुराई, “और तेरी मुस्कान मेरे लिए पूरा दिन चमका देती है।”

बच्चा हुआ—नई शरारतें, नए किस्से, पहले शब्द, छोटी-मोटी लड़ाइयाँ।
पर पर्दे के पीछे प्यार उतना ही गहरा—“मैं हूँ ना,” वो कहता।
वो जवाब देती, “और मैं तेरी मुस्कान की गूंज।”

समय के साथ ऑफिस के टेंशन, किताब की बिक्री की चिंता, सब कुछ—पर मुलाकात वही, चाय वही, बातें वही।
“फिर से वही चाय, वही बातें, जो बिना बोले समझ जाएँ—यही याद दिलाता है, तू मेरी लाइफ है।”
और वो हँस के कहती, “तू मेरी मुस्कान का आगाज़ है।”

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