गांव की प्रेम कहानी
गर्मी का मौसम, ऊपर सूरज बापू ऐसे चमक रहे थे जैसे बिन बुलाए मेहमान। वैसे ही पहली किरण खेतों पर गिरी, पिंकी उठी – आँखें अधूरी नींद में, बाल थोड़े बिखरे, हाथ में वो पुरानी सी चमेली की चम्बल। आँगन से निकलकर सीधा खेतों की ओर, जैसे हर दिन का यही रूटीन हो।
उधर करण—मिट्टी से दोस्ती करता लड़का। उँगलियाँ मिट्टी में धँसी, पसीने से गाल चमक रहे, आँखों में कोई सपना पल रहा। पिंकी को देखा, तो बस… थोड़ा सा रुक गया वक्त। उसकी चाल, उसकी हँसी – जो भी कह लो, करण को तो सब खास लगने लगा।
फुर्सत कहाँ थी किसी के पास, लेकिन फिर भी, पता नहीं कैसे, दोनों कभी कभार टकरा ही जाते। पिंकी चुपके से दो-तीन फूल थमा देती, करण मुस्कुरा कर अपनी टोपी सीधी कर लेता। बातें भी अजीब—“कल बारिश हुई क्या?” “हाँ, मम्मी बोली थी।” मतलब प्यार के शुरूआती दिन, जब सब कुछ छोटा-छोटा, लेकिन दिल से बड़ा लगता है।
समय रुकता है क्या—धीरे-धीरे दोनों की दुनिया जुड़ती गई। खेतों में काम, कभी पिंकी पेड़ के पीछे से झाँकती, उसकी भोली-भाली बातों में करण की हँसी छुप जाती। एक दिन तो करण बोल ही गया, “तेरा फूल दिल को ठंडक देता है।” पिंकी बस शरमा के मुस्कुरा दी, जैसे सब समझ गई हो।
फिर आया गाँव का मेला। बच्चों की भीड़, औरतों के बजते गिलास, चारों ओर हँसी-ठिठोली। करण थोड़ा हिम्मत बटोर कर बोला, “चल, मेरे साथ झूला झूल चल।” पिंकी ने मुस्कुराकर सिर हिलाया, दोनों झूले पर बैठे—हवा में उड़ते सपने, आँखों में चमक। उस दिन दोनों की आँखों में एक अलग ही चमक थी, जैसे कुछ अच्छा होने वाला हो।
बस, प्यार को ज्यादा छुपाया नहीं जा सकता। एक दिन पिंकी के पापा ने देख लिया—फिर क्या, पंचायत बैठी, बुजुर्गों ने सिर हिलाया, “ठीक है, दोनों की जोड़ी जमती है।” करण के पापा बोले, “हमारा बेटा और ये मिट्टी—दोनों की खुशबू एक जैसी है।”
शादी की तैयारी शुरू—बहनें आईं, चूल्हा जला, हल्दी लगी, मेहँदी रची। शादी के दिन, पिंकी के चेहरे पर चमक थी, करण के हाथ काँप रहे थे—लेकिन दोनों के दिलों में शांति थी, जैसे एक लंबी सर्दी के बाद पहली धूप मिली हो।
शादी के बाद भी वही खेत, वही मिट्टी। दोनों साथ में बीज बोते, फसल की खुशी मनाते, बच्चों की किलकारियों में अपना बचपन ढूंढते। गाँव की चौपाल, खेत के किनारे बैठ कर पुराने किस्से, और बीच-बीच में मीठी नोकझोंक।
फिर आया सूखा—पानी की किल्लत, फसल खराब। गाँव के कई लोग शहर भागने लगे। करण और पिंकी ने भी सोचा, लेकिन फिर दोनों ने तय किया—“हमारी जड़ें यहीं हैं, मिट्टी से दूर जाएंगे तो क्या बचेगा?” उनके बच्चे खेतों में खेलते रहे, उनकी हँसी खेत की हवा में गूंजती रही। दोनों बस देखते, हँसते।
मुसीबतें आईं—कभी बीमारी, कभी कर्ज, कभी बाढ़। लेकिन साथ कभी नहीं छोड़ा। पिंकी कहती, “जब तू साथ है, सब आसान है।” करण हँसकर बोलता, “तेरी हँसी से ही तो घर रोशन है।”
आखिर में, दोनों बूढ़े हो गए, पर हाथों की पकड़ कमजोर नहीं हुई। शाम को खेत के रास्ते पर टहलते—बचपन से जवानी, जवानी से बुढ़ापे तक का सफर, सब आँखों के सामने। गाँव की शाम, बच्चों की हँसी, खेतों की महक—इसमें ही उनकी दुनिया थी।
सूरज डूबा, खेतों की मिट्टी ने विदा ली, पिंकी बोली, “देख, सूरज भी मुस्कुरा रहा है।” करण ने सिर हिलाया, “हमारी कहानी—गाँव की प्रेम कहानी।”
दोनों मुस्कुराए, सूरज की लाली में अपना प्यार बुनते रहे।
अंत में यही—मिट्टी की गहराई में बसी दो जानें, जिन्होंने सादगी और संघर्ष में प्यार को जिंदा रखा। उनकी कहानी गाँव की गलियों में, बच्चों की हँसी में, खेतों की मिट्टी में हमेशा गूंजती रहेगी—कभी खत्म नहीं होगी।